शनिवार, 21 जून 2008

एक विचार की शुरूआत: श्री दीनबंधु प्रसाद



किताबी शिक्षा अधिक न होने के बाद भी बेहद ऊंची सोच, उच्च आदर्श और स्वच्छ विचारों के धनी हैं श्री दीनबंधु भोलानाथ प्रसाद। बिहार के रोहतास जिले के एक गांव के रहने वाले तीस वर्षीय दीनबंधु जी ने दसवी कक्षा तक पढ़ाई करी है घर की माली हालत ज्यादा अच्छी न होने के कारण ज्यादा पढ़ न सके और नौकरी के लिये मुंबई आना पड़ा, मध्यरेल में प्वाइंट्समैन के पद पर कार्यरत दीनबंधु जी के तीन बेटे हैं। जब मैंने इनसे लैंगिक विकलांगो के विषय में बात करना शुरू करी तो उन्होंने जो विचार दर्शाए वे अत्यंत आशास्पद प्रतीत होते हैं कि भविष्य सुखद होगा। इनका मानना है कि माता-पिता स्वयं ही रूढ़ियों में जकड़े रहते हैं इसीलिये किसी लैंगिक विकलांग बच्चे की पैदाइश पर अकुला जाते हैं जबकि मां ने उतनी ही प्रसव पीड़ा झेली है जितनी कि सामान्य बच्चों के जन्म में होती है फिर क्यों उसका आंचल छोटा पड़ जाता है,क्यों वह मां अपने जने बच्चे को भले ही दुःखी हो कर, रोकर ही सही लैंगिक विकलांगों की टोली को सौंप देती है? दीनबंधु भरपूर आक्रोश में इस बात को कहते हैं कि यदि आप कुतिया कि पिल्ले को उठाने की कोशिश करें तो वह आपको एक पशु होकर भी अपना बच्चा नहीं ले जाने देती और भौंक कर, काट कर अपना विरोध जता देती है लेकिन एक इंसानी माता कैसे सहन कर लेती है कि कोई उसके बच्चे को ले जाए। मांओ की ममता लिंग पर टिकी सड़ी परंपरा के आगे बौनी हो जाती है। चिढ़ होती है उन बुद्धिजीवियों से जो महिला विमर्श पर सिर फोड़े रहते हैं और लैंगिक विकलांग बच्चे की बात आते ही सांप सूंघ जाता है इनकी बुद्धि को। सब को बदलाव की पहल करनी होगी कि हम अपने बच्चों से इतना प्रेम करें कि उन्हें किसी को देने से इन्कार कर सकें और यदि कोई जबरन उस बच्चे को ले जाए तो कानून का सहारा लें। क्या आज तक किसी माता-पिता ने पुलिस में इस बात की रिपोर्ट दर्ज कराई है कि हिजड़ों की टोली उनका बच्चा ले गई? दीनबंधु जी चाहते हैं कि उनका ये संदेश मांओ तक पहुंचे जिन्होंने उन बच्चों को भी नौ माह कोख में पाला होता है वे अपने बच्चों को रोकें इस नर्क में जाने से...........
आज दीनबंधु जी से बात करके लग रहा है कि ये तो विचार का पहला धमाका है जो कि एक चैन रिएक्शन के रूप में शुरू हो जाएगा, आज एक है कल सौ, हजार, लाख और करोड़ होते देर न लगेगी। मैं ईश्वर से प्रार्थना करती हूं कि अगर कुछ करना है तो दीनबंधु जी जैसी सोच रखने वाले कुछ लोग दुनिया में भेज दे ताकि मेरा काम सरल हो जाए।

शोषण का पोषण करते ये गुरूघंटाल

सभ्य समाज के ढांचे में प्रगतिवादी सोच को जब परंपराओं में कमी नजर आती है तो स्वाभाविक है कि नई सोच रूढ़ियों का विरोध करेगी। इस वैचारिक विरोध से ही समाज की कमियां क्रमशः दूर होती जाती हैं। स्वस्थ समज के लिये जो परंपराएं हानिकारक रहती हैं वे समाप्त हो पाती हैं। ऐसी है बुरी परंपराएं थीं - बाल विवाह, सती प्रथा, दहेज प्रथा, पशु बलि, बंधुआ मजदूरी,छुआछूत आदि। जब श्रेष्ठ लोगों ने इन बुरी परंपराओं को समझा कि ये समाज के विकास में बाधक हैं तो इनका पुरजोर विरोध किया लेकिन यकीन मानिये कि एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा भी था जिसने इन परंपराओं को अपनी सभ्यता की पहचान बताते हुए इनके पक्ष में हो कर इन्हें जीवंत रखने के लिये बाहुबल, धर्म और कानून आदि के हथियार उठा लिये। एक बारगी सामने से देखने से लगता है कि ये मात्र रूढ़िवादियों और प्रगतिवादियों के बीच असहमति का परिणाम है परंतु अंदर से पर्तें उघाड़ कर देखने पर ये मात्र निहित स्वार्थों की रक्षा के लिये होती लड़ाई थी।
लैंगिक विकलांगों के समाज में भी ठीक ऐसा ही चल रहा है। जब कोई लैंगिक विकलांग गुरू-शिष्य परंपरा से इस समाज में प्रवेश करता है तब गुरू कहलाने वाले शख्स के मन में सत्यतः ऐसा कोई भाव होता ही नहीं है गुरूजी तो बस सुंदर-कमाउ शिष्यों की कमाई पर नजरें गड़ाए रखते हैं ताकि जल्द से जल्द बैठ कर खाने की जुगाड़ हो सके। समय बीतता जाता है और नए नायक, गुरू और चेले इस परंपरा में जुड़ते जाते हैं लेकिन स्वार्थ पर टिकी शोषण की प्रक्रिया निरंतर सदियों से चलती चली आ रही है। हर गुरू का कर्तव्य होता है कि वह अपने जीवन के अनुभवों तथा जानकारियों के आधार पर अपने शिष्यों को खुद से दो कदम आगे बढ़कर बेहतर जीवन जीने की प्रेरणा दे। यही गुरू-शिष्य परंपरा की सार्थकता है। किन्तु लैंगिक विकलांगों के परंपरागत समाज में गुरू भी भीख ही मांगते थे या देहव्यापार करते व नाच-गाकर बधाई देते और शिष्य भी वही करते रहे। गुरू भी समाज की मुख्यधारा से बाहर बहते रहे और शिष्यों को भी रहस्यमय परंपराओं की आड़ में यही सब कराते रहे। किसी गुरू ने अपने शिष्यों को आजीविका के लिये किसी अन्य कार्य के लिये न तो प्रेरित करा और न ही यह प्रेरणा दी कि बेटा मैं तो न पढ़ सकी कम से कम तुम तो पढ़ सको इसलिये मैं तुम्हारे लिये घर पर ही ट्यूटर लगा देती हूं? किसी गुरू ने समाज द्वारा किये गये बहिष्कार के खिलाफ़ आवाज को इतना बुलंद क्यों नहीं किया कि कानून उस आवाज को सुन सकता? खुद तो जाहिल बने रहे और नए आने वाले बच्चों को भी जाहिल-बेहया बनाए रखा। कुछ जगहों से यदा-कदा आपको सूचनाएं मिलती होंगी कि अमुक शहर या गांव में फलां लैंगिक विकलांग ने अपने धन से स्कूल खोला है लेकिन क्या आज तक किसी ने देखा है कि उस स्कूल में कोई लैंगिक विकलांग बच्चा पढ़ रहा हो अपनी सही पहचान के साथ? अरे हिन्दुओं ने सरस्वती विद्या मंदिर बना लिये मुस्लिमों ने अंजुमन इस्लाम बना डाले अपने अपने समुदाय के बच्चों को पढा़-लिखा कर उनकी पहचान समाज में ऊंची उठाने के लिये लेकिन किसी लैंगिक विकलांग गुरू ने ऐसा हरगिज नहीं करा कि जो पीड़ा मैंने झेली है वो इन बच्चों को न उठाने दूंगी, इन्हें पढा़-लिखा कर इस काबिल बनाऊंगी कि आने वाले समय में ये अपने जायज़ हक़ के लिये सही तरीके से मांग कर सकें। ये स्कूल वगैरह खोलना मात्र प्रसिद्धि पाने के टोटके रहते हैं। अगर सचमुच गुरू पद के उच्च आदर्श को पालने के इच्छुक ये गुरू लोग होते तो समाज में चेतना लाने का प्रयास करते कि अपने बच्चों को किसी हिजड़ो की टोली को मत दो और अगर कोई जबरदस्ती करता है तो कानून का सहारा लेकर अपहरण का मामला दर्ज करवाओ, क्यों कोई गुरू किसी NGO को इस बात के लिये प्रेरित नहीं करता कि मेरे शिष्यों को प्रौढ़ शिक्षाकेंद्र ले जाओ .......... । ये गुरू बने हुए गुरूघंटाल जानते हैं कि अगर उन्होंने ऐसा करा तब तो अनिर्णीत लिंग के आधार पर जीवित इनका थोथा,खोखला और शोषण पर टिका समाज महज दो पीढ़ियों मे ही समाज की मुख्यधारा में विलीन हो कर लुप्त हो जाएगा और फिर इन्हें खाने के लिये मेहनत-मजदूरी या कोई रोजगार करना पड़ेगा जो कि ये गुरूघंटाल लोग नहीं चाहते यही कारण है कि ये लोग शोषण का पोषण कर उसे जीवंत बनाए हुए हैं। मुझे पता है कि मैं जिस बात की शुरुआत कर रही हूं उसका सुखद अंत देखने के लिये जीवित न रहूं लेकिन मेरे भाई जो कि सच्चे अर्थों में गुरूपद के अधिकारी हैं उनकी प्रेरणा से इस नए वैचारिक धरातल पर इन तथ्यों को ला रही हूं।

शनिवार, 14 जून 2008

वंदना बहन ने माना कि मैं किन्नर,यक्ष या गन्धर्व नहीं बल्कि इंसान हूं.......




आज मैंने वंदना बहन जी को दिये साक्षात्कार को उनकी साप्ताहिक पत्रिका "इंडिया न्यूज"(१४ जून-२० जून २००८) के अंक में छपे रूप में देखा और उस आलेख को पढ़ा तो मुझे वाकई यकीन हो चला कि मेरे भाई डा.रूपेश सही कहते हैं कि सभी पत्रकार एक जैसे नहीं होते। इसमें से वंदना बहन ने सिद्ध किया कि जिस तरह एक पत्रकार मेरी भावनाओं को आहत कर सकता है उसी तरह वंदना बहन की तरह के पत्रकार इन दुखों का मरहम भी अपनी लेखनी से लगा सकते हैं; अब पता चल रहा है कि इस काली स्याही के कितने रंग हैं और जहां एक ओर ये मुंह पर छिड़क कर मुंह काला और दाग़दार कर देती है वहीं दूसरी ओर जले हुए जख्म पर लगा देने से शीतलता प्रदान करके घाव को शीघ्र ही भर कर ठीक भी कर देती है। सच तो ये है कि मैं उस लेख को करीब सौ बार पढ़ चुकी हूं लेकिन यकीन कर पाना भी एक सपने जैसा ही लग रहा है कि कहीं ये भी एक सपना न हो जो किसी का धक्का लगने या ’अबे ओए छक्के.......’ की आवाज से टूट जाएगा। वंदना बहन जैसे लोग जो हमें सहज ही इंसान मानते हैं बिना किसी हिचकिचाहट के तो अब खुद पर यकीन हो चला है कि मैं किन्नर या यक्ष, गन्धर्व, नाग या देवी-देवता जैसी कुछ नहीं हूं बल्कि मेरे भाई की तरह सामान्य इंसान हूं। मैं एक बात पुरजोर रखना चाहती हूं कि "थर्ड सेक्स" जैसी अस्तित्त्वहीन बात को लोग ना जाने किस स्वार्थवश सच सिद्ध करने पर तुले हैं। मैंने वंदना बहन को देखा नहीं है पर पूरा भरोसा है कि वे दिल से तो मेरे भाई डा.रूपेश का ही नारी संस्करण हैं। उनसे एक विनती कर रही हूं कि कभी मुंबई आएं तो अवश्य मिलें ताकि उन्हें जोर से सीने से लगा कर प्यार कर सकूं और धन्यवाद की औपचारिकता करने की बजाय उन्हें अपने हाथ से बना खाना खिला सकूं। अब मैं कह सकती हूं कि मेरे लैंगिक विकलांग समाज के इतर मेरी दो बहनें और हैं जिनमें बड़ी हैं श्रीमती मुनव्वर सुल्ताना जो कि उर्दू स्कूल में शिक्षिका हैं और दूसरी वंदना भदौरिया जो कि एक ईमानदार पत्रकार हैं, जिनके ऊपर भाई की बात सही लागू होती है कि " पतनात त्रायते इति पत्रकारः" यानि कि जो पतन से बचाए वह ही पत्रकार है। ईश्वर से प्रार्थना है कि मेरी वंदना बहन इसी तरह से लोगों के कांटो भरे मार्ग को प्रशस्त करती रहें लेकिन उनके हाथ फूलों से भरे रहें.................
 

© 2009 Fresh Template. Powered by भड़ास.

आयुषवेद by डॉ.रूपेश श्रीवास्तव