रविवार, 25 जनवरी 2009

स्वास्थ्य और तालियां बजाना

आज गणतंत्र दिवस मनाया जा रहा है तो रात भर से हमारी बस्ती में लोग गड्ढ़ा खोदना, लोहे का पाइप लगाना उसमें राष्ट्र ध्वज बांधना और फूल-झंडियां-मिठाई ना जाने क्या क्या......। वहीं जब इन इंतजामों में लगे उत्साही युवकों और स्थानीय नेताओं को देखते हुए सुबह हो गयी रोज की तरह से नजदीक ही बड़ी इमारतों में रहने वाले करी तीस-चालीस बुजुर्ग एकत्र होकर हंसने का अभ्यास करने लगे। कहते हैं कि इसके पीछे सांइटिफ़िक कारण रहते हैं कि हंसी चाहे झूठी हो या सच्ची लाभकारी रहती है। आज इन बुजुर्गों ने एक नया अभ्यास शुरू करा और वो था जोर-जोर से विभिन्न लय पर तालियां पीटना......। जब मैंने साहस करके अभ्यास कराने वाले दादाजी से पूछा तो उन्होंने बताया कि बेटा ताली बजाने से हाथ के एक्यूप्रेशर प्वाइंट्स सक्रिय बने रहते हैं और शरीर व मन का स्वास्थ्य उत्तम बना रहता है। मेरी कमाठीपुरा(मुंबई ही नहीं एशिया का सबसे बड़ा रेडलाइट एरिया) में रहकर देह व्यवसाय करने वाली एक बहन ने मुझसे तुरंत पूछा कि मनीषा ! क्या मैं भी तालियां बजाया करूं दवाएं लेने के साथ ही? वो एच.आई.वी. पाजिटिव है, मेरे पास उसकी बात का उत्तर नहीं है । कितनी तालियां बजाएं हम स्वतंत्रता दिवस से गणतंत्र दिवस तक तालियां ही तो पीटते रहते हैं हम सब......... लेकिन मन है कि स्वस्थ होने के लिये तालियां छोड़ना चाहता है। हम कभी तालियां नहीं बजाना चाहते चाहे कोई भी कारण क्यों न हो।

गुरुवार, 22 जनवरी 2009

बाबूजी का वात्सल्य: मनीषा नारायण को आशीष सहित भेजी पुस्तकें

बुद्ध की कहानियां,भारतीय वन्य जीव,पौराणिक कहानियां,परमाणु से नैनो प्रौद्योगिकी तक : बाबू जी ने भेजी पुस्तकें बचपन में ले जाती हैं बाबूजी के हस्तलिखित आशीर्वाद उनकी मानस पुत्री मनीषा नारायण के नाम : शब्दों से जुड़ती स्नेह-रज्जु
आज मेरे जीवन का एक बहुत बड़ा खुशियों भरा दिन है, मेरा मुहिम एक नए आयाम को छू रहा है। हमारे मार्गदर्शक गुरुवर्यसम आदरणीय शास्त्री श्री जे.सी.फिलिप जी ने मनीषा दीदी के लिये कुछ पुस्तकें भेजी हैं अपने हस्तलिखित संदेश के साथ ; जो कि मुझे इस बात का एहसास बड़ी शिद्दत से दिलाने के लिये काफ़ी है कि अब वाकई मेरे प्रयास के रंग में एक और प्रकाश की पट्टी जुड़ गई है और इसी तरह इस मुहिम में एक सप्तरंगी इंद्रधनुष उतर आयेगा, सफ़लता मिलेगी जब सारे बच्चे सम्मान से सिर उठा कर जी सकेंगे, समाज में सहज भाव से स्वीकारे जाएंगे, समान संवैधानिक अधिकार पा सकेंगे.........। मनीषा दीदी को पुत्रीवत स्वीकारने वाले हम सबके बाबूजी के द्वारा मुझसे फोन पर बात कर लेना भर मुझमें नयी ऊर्जा का संचार देता है, उनकी फोन पर दूर से आती वात्सल्य और करुणा में डूबी आवाज कई-कई दिनों से लगातार जागे रहने की मेरी शारीरिक थकान को न जाने कहां गायब कर देती है और मैं फिर जुट जाता हूं अपने यायावरपन में अपने बच्चों का हित तलाशने के लिये। जब मैंने मनीषा दीदी को बताया था कि बाबूजी आपके लिये पुस्तकें भेजने वाले हैं तो खुशी और आंसू का एक अजीब सा भाव उनके चेहरे पर मैंने देखा था और अब यकीन गहरा हो चला है कि हम सब के समेकित प्रयत्नों से एक दिन बस खुशियां ही खुशियां होंगी।

शुक्रवार, 16 जनवरी 2009

बाबूजी रास्ता बताइये..........


आदरणीय बाबू जी शायद सोच रहे होंगे कि मनीषा बहुत व्यस्त हो गयी है तो इन दोनो भाई-बहन ने नववर्ष की शुभेच्छा दी और न ही पोंगल की शुभकामनाएं। सच तो यह है कि हम दोनो आजकल पागल की तरह से सूचना प्राप्ति के अधिकार का प्रयोग कर समाज और देश / राज्य में लैंगिक विकलांगों की स्थिति जानने के लिये लगे थे। जरा आप सब जानिए कि क्या हुआ जब सूचना प्राप्ति कि अधिकार का आवेदन पत्र विधिवत भर कर उस पर १० रु. का रेवेन्यू स्टैम्प लगा कर मैं भाई के साथ नगर परिषद कार्यालय गई तो चूंकि यहां अधिकतर क्लर्क भाईसाहब डा.रूपेश को एक सताने वाले कायदा-पंडित के रूप में पहचानते हैं जिसकी वजह से उनके प्रति एक पूर्वाग्रह बना रखा है सबने कि ज्यादा से ज्यादा चक्कर लगवाएं ऐसा उन सबका प्रयास रहता है। जैसे ही आवेदन पत्र देखा तो चार पांच क्लर्क एकत्र हो गए और पहले आपस में सलाह -मशविरा करा फिर भाईसाहब से बोले कि ये एप्लीकेशन में सवाल पूंछा गया है हम उत्तर नहीं बल्कि सूचनाएं उपलब्ध करा सकते हैं जो कि पत्र-प्रपत्रों या अन्य किसी रूप में रेकार्ड में मौजूद हों इसलिये ये एप्लीकेशन स्वीकारी नहीं जा सकती तो भाई अड़ गए कि इस एप्लीकेशन पर आप जो कारण बता रहे हैं वह लिखते हुए अस्वीकार करने की टीप लिख दीजिए ताकि हम वापस चले जाएं। एक बार फिर हुज्जत शुरू हो गयी.....। होते होते बात यहां तक पहुंच गयी कि एक क्लर्क ने कह दिया कि मैडम मनीषा नारायण पहले तो आप किसी प्रमाण से ये सिद्ध करिये कि आप भारतीय नागरिक हैं तब आपको ये अधिकार बनता है कि आप कोई सवाल हमसे कर सकती हैं ऐसा हो सकता है कि आप बांग्लादेशी घुसपैठिया हों जो कि बिना किसी अधिकार के भारत में रह रहा हो क्यों न पुलिस बुलाया जाए और इस बात को आगे बढ़ाया जाए। अब हम दोनो मुख्याधिकारी जी के पास गये तो उन्होंने सारी बात सुनी हमें चाय पिलायी और अपनी भारी असर्मथता जताते हुए बोले कि मैं एक बात अनआफ़िशियली डा.साहब से कहना चाहता हूं इसे अन्यथा न लें कि ये वही देश है जहां कागजों पर मरे हुए घोषित कर दिये लोग बरसों बरस आफ़िसों के चक्कर लगाते रहते हैं और एक दिन सचमुच मर जाते हैं। उन्होंने हमसे बहुत सम्मान से व्यवहार करा लेकिन ये भी बताया कि यदि आपकी नागरिकता पर सवाल करा गया है तो यह मामला ये क्लर्क लोग बात बढ़ने पर स्थानीय राजनेताओं के पास ले जाते हैं फिर आप तमाम तरह से स्टेट की मशीनरी का दुरुपयोग करके सतायी जाएंगी।
कई बातें स्पष्ट होने के बाद हम दोनो वापस आ गए है लेकिन अब विचार कर रहे हैं कि आगे क्या रणनीति हो साथ ही बाबूजी श्री जे.सी.फिलिप जी और आप सभी जनों से निवेदन है कि यदि कोई विशेष सुझाव हो तो अवश्य बताएं।

शुक्रवार, 9 जनवरी 2009

डा.रूपेश के नए बच्चे करेंगे पुराने सवाल

क्या सारी समस्याएं समाप्त हो गयी हैं? हरगिज नहीं...लेकिन अब वो समस्याएं हमें अब हमारी एकजुटता और प्यार के आगे बौनी नजर आने लगी हैं। कुछ समय पहले तक राशन कार्ड या ड्राइविंग लाइसेन्स जैसी चीजें लगता था कि हमारे अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए ये बहुत जरूरी हैं लेकिन अब से डा.रूपेश जैसे भाई का साथ और बाबूजी(श्री जे.सी.फिलिप) का मार्गदर्शन हमें ये बता रहा है कि हम जल्द ही एक स्वीकार्य पहचान के साथ समाज में समान संवैधानिक अधिकारों के साथ खड़े होंगे। डा.रूपेश ने सभी लैंगिक विकलांग बच्चों को पिता की हैसियत से अपना नाम देकर सभी बच्चों के भीतर एक नई आत्मा फूंक दी है, सारे बच्चे अलग-अलग की बोर्ड लेकर दिन में अक्सर मांग कर आने के बाद अभ्यास करते मिलते हैं; जल्द ही सारे सरकारी विभागों में इन बच्चों के द्वारा भेजी गई एप्लीकेशन्स दिखेंगी......। सूचना प्राप्ति के अधिकार का प्रयोग करते हुए सरकार से जाना जाएगा कि हमारे जैसे लैंगिक विकलांगों के लिए क्या सरकार ने कुछ विचार करा है अथवा नहीं? हमारी कानूनी स्थिति के क्या संदर्भ है? हमारी नागरिकता की पुष्टि कैसे करी जाती है? जो लैंगिक विकलांग चुनाव में अपना नामांकन भरते हैं या जो वोट देते हैं वो किस परिचय से ऐसा कर पाते हैं? इत्यादि...इत्यादि...।

बुधवार, 7 जनवरी 2009

नया साल, नई आशा !!

मानव जीवन की विडंबना है कि हर जगह विविधता होते हुए भी समाज कुछ विविधताओं को नकारता है. इसका सबसे अच्छा उदाहरण है उन लोगों के प्रति समाज का नजरिया जिनको स्त्री या पुरुष नहीं कहा जा सकता है.

ये लोग सामान्य  यौन-आधारित अंतरों से मुक्त ईश्वर की सृष्टि हैं, लेकिन इन लोगों को इस नजरिये से कम ही देखा जाता है. उसके बदले इन को भारतीय समाज में अप्राकृतिक लोगों के रूप में देखा जाता है, जबकि जो चीज "प्रकृतिदत्त" है वह है की "प्राकृतिक" और उसे इसी नजरिये से देखा जाना चाहिये.

डॉ रूपेश जैसे लोगों के कारण लोगों की सोच में बदलाव आने लगा है, और उम्मीद है कि सन 2009 लैंगिक विकलांगो के लिये नई आशा लेकर आया है.


 

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आयुषवेद by डॉ.रूपेश श्रीवास्तव