मंगलवार, 21 अप्रैल 2009

मेरे दोस्त का बच्चा हिजडा निकला !!

(सारथी पर हाल ही में छपा शास्त्री जी का लेख) लैंगिक विकलांगों पर मैं ने अभी तक जो कुछ लिखा है उन में टिपियाये गये प्रश्नों के उत्तर मैं अगले आलेख में दूँगा. मेरा अनुरोध है कि तब तक पाठकगण एवं विकलांग मित्र सबर के साथ इंतजार करें!

दो दशाब्दी पहले की बात है, बडे भोर को अचानक मेरे एक मित्र का दूरभाष आया कि वह भारी मुसीबत में है अत: मैं तुरंत अस्पताल पहुंचूँ. गिरते पडते वहां पहुंचा तो रोनी सूरत लेकर वह बाहर खडा हुआ था. पूछा तो बताया कि सुबह चार बजे पत्नी का प्रसव हो गया लेकिन बच्चा न नर है न मादा क्योंकि पुरष-स्त्री दोनों लिंग बच्चे के शरीर में  मौजूद है.

मेरे लिये यह पहली जानकारी नहीं थी इस कारण मैं ने उससे कहा कि वह तुरंत ही रेलगाडी से बच्चाजच्चा को लेकर पास के ही एक शहर के सर्जन से मुलाकात करे. उसने ऐसा ही किया. इधर मैं ने सब को खबर दे दी कि बच्चे की कुछ गंभीर समस्या के कारण उसे बडे अस्पताल ले जाना पडा है. उस अस्पताल में जनीतक जांच से पता चला कि वह बच्चा एक लडकी है. सर्जन ने मांबाप को आश्वस्त किया और बच्ची को खिलाने के लिए एक दवा दे दी.

डाक्टर का निर्देश यह था कि दस साल की उमर तक बिना किसी को पता लगे उसका पालनपोषण  करें, दवा देते रहें, और उसके बाद उसकी शल्यक्रिया कर दी जायगी. उस युवा परिवार ने ऐसा ही किया. दवा देते रहे, बच्चे की विकलांगता हरेक से छुपा कर रखी, और  उसे हर तरह से ट्रेनिंग दी कि वह किस तरह से अपनी विकलांगता को छुपा कर रखे. उसे कभी भी हीनभावना से ग्रस्त न होने दिया.

समय आने पर शल्यक्रिया से लिंग को (जो दवा के असर से लगभग सूख सा गया था) हटा दिया गया. तब कहीं मांबाप की जान में जान आई कि अब बच्ची एक लडकी के रूप में चैन की जिंदगी बिता सकती है. वह लडकी असामान्य बुद्धि और हिम्मत की धनी थी एवं आज हिन्दुस्तान के एक कोने में एक उन्नत स्थान पर जी रही है.

आज हिन्दुस्तान में जितने हिजडे हैं, उन में से अधिकतर (1000 में से 990 या अधिक)  इस तरह की जनीतक-गलतियों के मारे हुए हैं. जीन्स के हिसाब से वे या तो पुरुष हैं या स्त्री हैं लेकिन पैदाईश के समय वे जननांगों में विकलांग निकले. समय पर उनको वैज्ञानिक/डाक्टरी मदद न मिल पाई, बल्कि उनके मांबाप ने “लोकलाज” के कारण उनको “फेंक देना” उचित समझा. इस कारण उनको उठा ले जाकर हिजडों ने पाला. वहां वे पल गये, लेकिन पढाई लिखाई न हो पाई, नौकरी पर कोई रखता नहीं है, अत: हिजडों के बीच जो चलन है (पैसा मांगना)  उसी पर चल कर वे जीने की कोशिश कर रहे हैं. इसका सारा दोष सिर्फ उनको देना उनकी दूसरी हत्या है  -- पहली हत्या मांबाप नें उनको त्यागने के द्वारा की, दूसरी हत्या मैं और आप अपनी क्रूर और संवेदनाहीन बोली द्वारा करते हैं.

यदि समाज किसी समूह से उस का हर मौलिक अधिकार (शिक्षादीक्षा, घरबार, नौकरी के अवसर) छीन ले, हर चीज उनके लिये वर्जित कर दे, अनको सीधे रास्ते से न तो राशनकार्ड दे, न पासपोर्ट दे, न डाईविंग लाईसेंस दे, बल्कि उनको भूखा और नंगा छोड दें,  और उसके बाद उन पर दोष लगाये कि वे पैसे के लिये छीनाझपटी करते हैं तो दोष समाज का है न कि लैंगिक विकलांगों का. इस नजरिये से वास्तविकता को देखपहचान कर हमें लैगिक विकलांगों के सशक्तीकरण के लिये कार्य करना चाहिये.

हिजडों को घिन से, नीची नजर से, तुच्छ नजर से देखना आसान है. उनके लिये कुछ करना कठिन है.  यदि अभी भी आप सारा दोष लैंगिक विकलांगों पर थोपना चाहते हैं तो युवा सिद्धार्थ (गौतम बुद्ध) का एक वाक्य याद दिलाना चाहता हूँ कि “किसी से उसका जीवन छीनने वाले व्यक्ति से बडा वह होता जो उसे जीवनदान देता है”.(मूल लेख सारथी चिट्ठे पर शास्त्री जी के द्वारा लिखा गया था. उनकी विशेष व्यक्तिगत अनुमति के कारण इस लेखन परंपरा को  अर्धसत्य पर पुन: प्रकाशित किया जा रहा है.)

6 टिप्‍पणियां:

Sanjay Grover ने कहा…

इसका सारा दोष सिर्फ उनको देना उनकी दूसरी हत्या है -- पहली हत्या मांबाप नें उनको त्यागने के द्वारा की, दूसरी हत्या मैं और आप अपनी क्रूर और संवेदनाहीन बोली द्वारा करते हैं.
यदि समाज किसी समूह से उस का हर मौलिक अधिकार (शिक्षादीक्षा, घरबार, नौकरी के अवसर) छीन ले, हर चीज उनके लिये वर्जित कर दे, अनको सीधे रास्ते से न तो राशनकार्ड दे, न पासपोर्ट दे, न डाईविंग लाईसेंस दे, बल्कि उनको भूखा और नंगा छोड दें, और उसके बाद उन पर दोष लगाये कि वे पैसे के लिये छीनाझपटी करते हैं तो दोष समाज का है न कि लैंगिक विकलांगों का. इस नजरिये से वास्तविकता को देखपहचान कर हमें लैगिक विकलांगों के सशक्तीकरण के लिये कार्य करना चाहिये.
हिजडों को घिन से, नीची नजर से, तुच्छ नजर से देखना आसान है. उनके लिये कुछ करना कठिन है. यदि अभी भी आप सारा दोष लैंगिक विकलांगों पर थोपना चाहते हैं तो युवा सिद्धार्थ (गौतम बुद्ध) का एक वाक्य याद दिलाना चाहता हूँ कि “किसी से उसका जीवन छीनने वाले व्यक्ति से बडा वह होता जो उसे जीवनदान देता है”.

100% SACH LIKHA HAI AAPNE.
SAMAAJ INHE LEKAR KITNI KRUR, EKANGI AUR RUDHIWADI SOCH RAKHTA HAI, ISKA PATA IS BLOG PAR AANE WALI TIPPNIYOn KI NAGANYA (KAM) SANKHYA SE BHI CHALTA HAI.

shama ने कहा…

Behad achha kiya ki ye lekh likhaa...aur uske baareme jaankaaree dee...adhooree jaankaareeke karan log bachheme heenbhawnaa bhar dete hain, use apraadhee mehsoos karane lagte hain, jabki, isme kiseekaa kya dosh?

ek tippanee maine mere blogpese hata dee hai...uskaa karan "ek binatee" ke tehet "bhadaas" pe diyaa hai...badehee mushkil daurse guzaree hun...bas yahee wajah hai...

shama ने कहा…

Maneeshaa ji apki "police reformspe" tippanee padhee...bohot, bohot dhanywaad...
Aap "gazab qanoon" ye lekbhi padhen...gar janta is or dhyan nahee degee to ,aam-yaa- khaas, jantaahee maregee...maree jaa rahee hai...phirbhi hamaree aankhen nahee khul rahee..
Lejiye, aap istarahke abhiyaan apne haathon me leejiye...aapke saath hun..kyonki merabhee ab yahee maqsad aur abhiyaan, dono hain...
snehsahit
shama

स्वप्न मञ्जूषा ने कहा…

bahut hi accha lekh, acchi jaankari ke saath,
dhnyawaad...

इष्ट देव सांकृत्यायन ने कहा…

उम्दा लेख है. मैं पहले भी पढ़ चुका हूं. इस विषय पर एक उपन्यास भी आ चुका है, डॉ. अनुसूया त्यागी का लिखा. शीर्षक है 'मैं भी औरत हूं'. यह पढ़े जाने लायक है.

Chhaya ने कहा…

How can parents just throw away their kids? its horrible.. horrible.

everyone has equal rights to a good life and it must never be taken away from him/her just bcz of a handicap, doesnt matter what kind it is.

 

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