आज मैंने वंदना बहन जी को दिये साक्षात्कार को उनकी साप्ताहिक पत्रिका "इंडिया न्यूज"(१४ जून-२० जून २००८) के अंक में छपे रूप में देखा और उस आलेख को पढ़ा तो मुझे वाकई यकीन हो चला कि मेरे भाई डा.रूपेश सही कहते हैं कि सभी पत्रकार एक जैसे नहीं होते। इसमें से वंदना बहन ने सिद्ध किया कि जिस तरह एक पत्रकार मेरी भावनाओं को आहत कर सकता है उसी तरह वंदना बहन की तरह के पत्रकार इन दुखों का मरहम भी अपनी लेखनी से लगा सकते हैं; अब पता चल रहा है कि इस काली स्याही के कितने रंग हैं और जहां एक ओर ये मुंह पर छिड़क कर मुंह काला और दाग़दार कर देती है वहीं दूसरी ओर जले हुए जख्म पर लगा देने से शीतलता प्रदान करके घाव को शीघ्र ही भर कर ठीक भी कर देती है। सच तो ये है कि मैं उस लेख को करीब सौ बार पढ़ चुकी हूं लेकिन यकीन कर पाना भी एक सपने जैसा ही लग रहा है कि कहीं ये भी एक सपना न हो जो किसी का धक्का लगने या ’अबे ओए छक्के.......’ की आवाज से टूट जाएगा। वंदना बहन जैसे लोग जो हमें सहज ही इंसान मानते हैं बिना किसी हिचकिचाहट के तो अब खुद पर यकीन हो चला है कि मैं किन्नर या यक्ष, गन्धर्व, नाग या देवी-देवता जैसी कुछ नहीं हूं बल्कि मेरे भाई की तरह सामान्य इंसान हूं। मैं एक बात पुरजोर रखना चाहती हूं कि "थर्ड सेक्स" जैसी अस्तित्त्वहीन बात को लोग ना जाने किस स्वार्थवश सच सिद्ध करने पर तुले हैं। मैंने वंदना बहन को देखा नहीं है पर पूरा भरोसा है कि वे दिल से तो मेरे भाई डा.रूपेश का ही नारी संस्करण हैं। उनसे एक विनती कर रही हूं कि कभी मुंबई आएं तो अवश्य मिलें ताकि उन्हें जोर से सीने से लगा कर प्यार कर सकूं और धन्यवाद की औपचारिकता करने की बजाय उन्हें अपने हाथ से बना खाना खिला सकूं। अब मैं कह सकती हूं कि मेरे लैंगिक विकलांग समाज के इतर मेरी दो बहनें और हैं जिनमें बड़ी हैं श्रीमती मुनव्वर सुल्ताना जो कि उर्दू स्कूल में शिक्षिका हैं और दूसरी वंदना भदौरिया जो कि एक ईमानदार पत्रकार हैं, जिनके ऊपर भाई की बात सही लागू होती है कि " पतनात त्रायते इति पत्रकारः" यानि कि जो पतन से बचाए वह ही पत्रकार है। ईश्वर से प्रार्थना है कि मेरी वंदना बहन इसी तरह से लोगों के कांटो भरे मार्ग को प्रशस्त करती रहें लेकिन उनके हाथ फूलों से भरे रहें.................
शनिवार, 14 जून 2008
वंदना बहन ने माना कि मैं किन्नर,यक्ष या गन्धर्व नहीं बल्कि इंसान हूं.......
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1 टिप्पणी:
मनिषा दीदी,
ये सिक्के का दुसरा पहलु था, लानत मलानत वाले पत्रकारिता से परे, सच को कहने सुन ने ओर दिखाने वाली पत्रकारिता। मैं वन्दना जी को बधाई देना चहता हू, ओर दिल में अब एक विश्वास कि हमारे इन तमाम उपेक्षित बहनों ओर बच्चों को समाज मे इनका हक मिलने का रास्ता बन ने कि शुरुआत है। आपके साथ होने वाले लोगों कि तादद बढेगी ओर दिन दूर नही जब आप सब लोग मुख्यधारा में होंगे।
आमीन
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