सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

जिस बात से भय लग रहा था



जिस बात से भय लग रहा था कि कहीं हम जैसे लैंगिक विकलांगों के समाज में स्वीकारे जाने पर हमारी पहचान न विकृत हो जाए। आजकल जिस तरह से लैंगिक विकलांगता को एक तीसरा लिंग जताया जा रहा है ये सबसे खतरनाक साजिश है कुछ कुटिल दिमागों की जो कि अपनी विकृत और बीमार मानसिकता को इस तरह से सामने लाकर भोले बन रहे हैं। मुंबई में होने वाली इस तरह की सौंदर्य प्रतियोगिताएं क्या भला कर पा रही हैं ये सवाल कोई नहीं उठाने का साहस करता। स्त्री एवं पुरुष समलैंगिक संबंधों को अपनी सैक्स प्रायोरिटी(काम वरीयता) बता कर रुग्ण कामुकता के लोग अपने लिये समाज में सहानुभूति पैदा कर रहे हैं और साथ में एक जो धूर्तता कर रहे हैं वह है हम जैसे लैंगिक विकलांगों को कुछ पैसों का लालच दिखा कर अपने कार्यक्रमों में शामिल करना। मैं इस तरह के आयोजनों का पूरी ताकत से विरोध करती हूँ, थू है उन आयोजकों पर जो कि अपने लाभ के लिये बेचारे कम पढ़े-लिखे और अपना भला बुरा न समझ पाने वाले लैंगिक विकलांग बच्चों को इस्तेमाल कर रहे हैं। ये प्रतियोगिताएं मात्र वैसी ही हैं जैसे कि अंधों या लंगड़ों के लिये अलग से सौन्दर्य प्रतियोगिता कराई जाए। मूल मुद्दा शिक्षित करके समाज की मुख्यधारा से जोड़ना है ताकि देहव्यवसाय(गुदामैथुन के द्वारा) या मजबूरी में नाच गाकर पेट पालने की पीड़ा को समाप्त करा जा सके।

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आयुषवेद by डॉ.रूपेश श्रीवास्तव