रविवार, 30 नवंबर 2008

बौद्धिक आतंकवाद यानि एड्स नामक अस्तित्त्वहीन बीमारी की अवधारणा



दुनिया भर में फैलाए गये एक अलग किस्म के आतंकवाद को आज जश्न के रूप में मनाया जा रहा है। ये बौद्धिक आतंकवाद उस आतंकवाद से कहीं ज्यादा खतरनाक है जो कि बम और बारूद से फैलाया गया है। कुछ बरस पहले इसे एड्स नामक बीमारी की अवधारणा के रूप में शुरू करा गया था और अब ये पूरे संसार में जड़ें जमा चुका है। इसलिये इसी खुशी को विश्व एड्स दिवस के रूप में मनाया जाता है। जबकि यह बीमारी वैसी ही है कि अंधेरे में भूत रहता है। इस विषय में डा.रूपेश श्रीवास्तव ने तो इस पूरे आतंकवाद से अकेले ही टकराने की ठानी है और यदि कोई भी इस विषय में अधिक जानना चाहे तो उनके लिखे शोधपत्र की प्रति मंगवा कर पढ़ ले। एड्स एक अस्तित्त्वहीन बीमारी है जिसे बड़े ही योजनाबद्ध तरीके से जमाया गया है।

गुरुवार, 27 नवंबर 2008

बंबई आतंकवाद !!

 

बंबई में जो कुछ हुआ उसके प्रति हर भारतीय शोक संतप्त है.

आतंकवादियों से लडते समय देश की सुरक्षा के लिये जिन शहीदों नें वहां अपनी जानें कुर्बान कीं उन सब के प्रति हम अपनी आदरंजली अर्पित करते हैं!!

बुधवार, 26 नवंबर 2008

ब्लागरों! आपका कोई लैंगिक विकलांग बच्चा हो तो उसे फेंकना मत मुझे दे देना......

आदरणीय वाचकों, आलोचकों, समीक्षकों, सहयोगियों,अभिभावकों
चूंकि मेरी धर्मपुत्री भूमिका रूपेश ने अपनी पोस्ट में लिखा है कि उसकी पोस्ट पर आयी किसी भी टिप्पणी को प्रकाशित न करा जाए इसलिये उसके विरोध के स्वर को समर्थन देता हुआ मैं भी ये कह रहा हूं कि यदि इन बच्चों को अपनी जगह बनानी है तो समाज की धारणाओं में थोड़ी नोच-खसोट और धक्का-मुक्की तो इन्हें करनी ही पड़ रही है वरना होना तो ये चाहिये कि जिस तरह महिलाओं की पत्रिकाओं को पुरुष चटकारे ले कर पढ़ते हैं और पुरुषों की पत्रिका स्त्रियां छिप कर पढ़ती हैं तो लैंगिक विकलांगता के प्रति इतना कौतूहल रखने वाले समाज को बहुत अच्छा प्रतिसाद देना चाहिये था लेकिन ऐसा हुआ नहीं। यहां ब्लागिंग में भी ढकोसलेबाज,मुखौटेधारी किस्म के लोग हैं जिन पर मुझे ही नहीं हम सबको संदेह है कि ये वही माता,पिता,भाई,बहन,चाचा,मामा,बुआ,फूफा आदि हैं जिन्होंने मेरे बच्चों को अपनी सड़ी सोच के चलते इस हाल में धकेल दिया है। यही लोग जिम्मेदार हैं जो मुंह छिपा रहे हैं अब इन बच्चों के सामने आ जाने से। हो सकता है कि अगर दुर्दैव से इनमें से किसी ब्लागर के घर कोई लैंगिक विकलांग बच्चा पैदा हो जाए तो ये उसे चोरी-छिपे मेरे घर के बाहर फेंक जाएं; इसलिये हे ब्लागरों में तुम्हारे ऐसे बच्चों को गोद में लेकर बोतल से दूध पिलाने, कंधे पर बैठा कर खेलने और उंगली पकड़ा कर चलना सिखाने के लिये तैयार हूं। हमारा स्वर तुम्हारी दुर्गंधित सोच का विरोध करने के लिये अब मुखर हो रहा है। जिन लोगों ने भूमिका रूपेश की पिछली पोस्ट पर हिजड़ा बन जाने की बात पर भी मुस्कराते हुये टिप्पणी करी है मैं उन्हें अपने पोस्ट से संलग्न करके सधन्यवाद प्रकाशित कर रहा हूं।
aapme badhiya likhne ki shakti hai...aur ye shakti har kisi me nahi hoti. ishwar ka shukriya karen ki aapka man ek lekhak ka hai. shubhkamnayen... Dileepraaj Nagpal
maine aapki saari post's dekhi. aapke shabdo mein kuchh to hai..main ho sakta hai koi tippani nahi kar saku par blog lagatar dekhta rahta hu.... संदीप शर्मा Sandeep sharma
अब देखना ये है कि आप भूमिका रूपेश जैसे बच्चों का विश्वास हासिल कर पाते हैं या नहीं वरना ऐसे बच्चे आपको ही वो भाई या बहन और माता-पिता मानते रहेंगे कि जिन्होंने उन्हें सड़को पर फेंक दिया है।

मेरी पोस्ट पर टिप्पणी करने से आप हिजड़े बन सकते हैं


जैसे-जैसे मैं लिखना तीखा करती जा रही हूं देख रही हूं कि लोग बिदक कर भाग रहे हैं। एक बड़ी साधारण सी बात कहना है कि यही पोस्ट अगर किसी लड़की की होती भले ही कितनी भी मूर्खतापूर्ण होती, बकवास होती या लटका-पटका की तुकबंदी जोड़ कर लिखनी वाली कोई कवियत्री होती तो उस पर कम से कम बीस-पच्चीस टिप्पणीकार लार टपकाते आ गये होते लेकिन हम लोगों का लिखा भी पढ़ लेने से लोगों को छूत लग जाती है, शायद लगने लगता है कि कहीं हमें भी "अर्धसत्य" पर टिप्पणी कर देने से या प्रोत्साहित कर देने से लैंगिक विकलांगता का इन्फ़ेक्शन न हो जाए और हम भी हिजड़े बन जाएं। मैं इस पोस्ट के द्वारा हम सबके धर्मपिता व गुरू डा.रूपेश श्रीवास्तव से निवेदन कर रही हूं कि अब वे कम से कम मेरी लिखी किसी भी पोस्ट पर कोई भी टिप्पणी न प्रकाशित करें। मुझे किसी की मक्कारी भरी सहानुभूति नहीं चाहिये। जब से मैंने लोगों के बनावटी मुखौटे नोचने खसोटने शुरू करे हैं हिंदी के छद्म शरीफ़ ब्लागरों में खलबली है, जवाब नहीं देते बनते इस बड़े-बड़े बक्काड़ और लिक्खाड़ लोगों से। हमारे कुनबे को हम खुद ही संवारने का माद्दा रखते हैं। मैं इस सोच से एक और फ़ायर-ब्रांड बहन को जोड़ रही हूं।

मंगलवार, 25 नवंबर 2008

माँबाप द्वारा त्यागे बच्चे!!

सामान्यतया लोग सिर्फ पुल्लिंग एवं स्त्रीलिंग के बारे में जानते है, लेकिन कुछ भाषाओं में नपुंसक लिंग भी होता है जो न तो स्त्रीलिंग होता है न पुल्लिंग. इस प्रकार वे इस बात को पहचानते हैं कि हर किसी वस्तु या व्यक्ति का स्त्री या पुरुष होना जरूरी नहीं है.



मनुष्य भी वास्तव में तीन लिंगों में जन्म लेता है: पुरुष के रूप में, स्त्री के रूप में, एवं एक तीसरे रूप में जो स्त्रीपुरुष के भेद से मुक्त है. इन लोगों की संख्या स्त्री एवं पुरुष की तुलना में इतनी कम होती है लोग अनजाने इनको असामान्य और अस्वीकार्य मान लेते हैं. लेकिन ऐसा हर समाज में नहीं होता है. कई समाजों में इनको अन्य लोगों के समान बराबर मिलता है. भारतीय समाज में भी यह परिवर्तन आना जरूरी है.



जब तक यह परिवर्तन नहीं आयगा, तब तक "अहं ब्रह्मास्मि" कहने वाला एक तबका दर्द सहता रहेगा. इनके दर्द को डॉ रूपेश ने एक हृदयस्पर्शी कविता में व्यक्त किया है जिसकी दो पंक्तियां हैं:



लज्जा का विषय क्यों हूं अम्मा मेरी?
अंधा,बहरा या मनोरोगी तो नहीं था मैं




मेरा अनुरोध है कि आप क्योंकि मैं हिजड़ा हूं.......... पर चटका लगा कर पूरी कविता एक बार जरूर पढें!

सोमवार, 24 नवंबर 2008

डा.रूपेश श्रीवास्तव सबके पिता बने.......

अब धीरे-धीरे नये बच्चे जो स्वयंभू सभ्य समाज और लैंगिक विकलांगों के समुदाय की परंपराओं के बीच थपेड़े खा रहे थे अब वे अर्धसत्य के द्वारा नयी सोच से जुड़ रहे हैं। अब एक फैसला करा है हमने कि एक और परंपरा को तोड़ेंगे और वह भी पुरजोर घोषणा करके। सारे बच्चे अपने नाम के आगे हमारे मार्गदर्शक डा.रूपेश श्रीवास्तव का नाम जोड़ेंगे यह करारा तमाचा है उन बायोलाजिकल माता-पिता की सड़ी हुई सोच के गाल पर जिन्होंने हमें परंपराओं के चलते सड़कों पर धक्के खाने के लिये छोड़ दिया था यानि कि अब हमारे भाईसाहब सबके पिता घोषित कर दिये गये हैं और भाईसाहब को इस बात पर कोई परेशानी नहीं है।

गुरुवार, 20 नवंबर 2008

बाथरूम में प्रवेश निषेध है!

क्या आपको जीवन के वे क्षण याद हैं जब आपको एकदम दौड कर बाथरूम की शरण में जाना पडा था. क्या वे क्षण याद हैं जब सारे बाथरूम भरे थे, एवं किसी के बाहर निकलने तक एक क्षण भारी हो रहा था.

लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि यदि कई बाथरूम खाली हों, लेकिन अपकी इमर्जेन्सी के बावजूद कोई आपको घुसने न दे -- सिर्फ इस गलती के लिये कि आप पुरुष या स्त्री नहीं, महज एक मानव हैं. ऐसे मानवों के साथ कैसा क्रूर व्यवहार होत है यह बहुत कम लोग जानते हैं.

कुछ लोग में मनीषा बहन ने जो लिखा है उसे मैं दुहराना चाहता हूँ क्योंकि बहुत कम लोग पुराने आलेख पढते हैं:
  • हमे तो मुंबई में सार्वजनिक टायलेट तक में इसी प्राब्लम का सामना करना पड़ता है कि जेन्ट्स टायलेट में जाओ तो आदमी लोग झांक कर देखना चाहते कि हमारे नीचे के अंग कैसे हैं और लेडीज टायलेट में जाओ तो औरतें झगड़ा करती हैं । बस यही हमारी दिक्कते हैं जो हमें जिंदगी ठीक से नहीं जीने देतीं और हम अलग से हैं ।

ये भी मानव हैं मेरे आपके समान. कुछ नहीं करें तो कम से कम इनके जीने के अधिकार को न छीनें!!

मंगलवार, 18 नवंबर 2008

ज्योत से ज्योत जलाते चलो......





पिछले किसी जन्म के सत्कर्म के फलस्वरूप इस जन्म में मेरे तारणहार मेरे गुरुदेव डा.रूपेश मुझे मिल गये। जो विद्या का प्रकाश उन्होंने मेरे भीतर जगाया है वो फैले उसी में उसकी सार्थकता है। पहले मैंने कम्प्यूटर सीखा, हिन्दी सीखी, ब्लागिंग सीखी और जीवन जीना सीखा। अब मैं खुद सक्षम हो गयी हूं कि किसी नये मित्र को सिखा सकूं। इसी ज्योत से ज्योत जलाने के मिशन में मैंने अपनी बड़ी गुरुबहन(लैंगिक विकलांग समुदाय में) रम्भा अक्का को भी कम्प्यूटर की शुरूआती जानकारियां देना शुरू करा था और अब वे स्वयं लिखने पढ़ने लगी हैं। मेरे पास इस खुशी को बताने के लिये शब्द नहीं है। ईश्वर हमारे इसे मिशन को कामयाब करे इसके लिये आप सबकी शुभेच्छाओं की आवश्यकता है, स्नेह बनाए रखें।

ब्लागर संदीप जी के सवाल का सहज उत्तर

मेरी किसी से सहानुभूति नहीं है। आप भले ही ना पुरुष में गिने जाते हों, ना महिला में, फिर भी नहीं। क्योंकि आपका एक गम तो स्पष्ट दिखाई दे रहा है, पर हिन्दुस्तान के जाने कितने ऐसे लोग हैं, जिनकी गिनती पुरुष अथवा स्त्रियों में तो होती है, परन्तु उनकी जिंदगी, जिंदगी नहीं है। आपका लिंग या योनी नहीं है, पर कई ऐसे लोग हैं, जिनमें किसी का हाथ नहीं होता, किसी का पैर नहीं होता, किसी की आंख नहीं होती, कोई बोल नहीं सकता, तो कोई देख नहीं सकता। मेरी यदि उनसे कोई सहानुभूति नहीं है, तो आपसे भी नहीं है। यह भूमिका मैंने केवल इसलिए लिखी कि आप मुझे यह ना समझें कि मैंने मात्र सहानुभूति के चलते आपको ई-मेल किया। फिर भी मेरा मात्र एक प्रश्न है- कि
सैक्स जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग है। आप द्वारा (आप जैसों) सैक्स नहीं करने पर क्या दिमाग कुंठित नहीं होता। और यदि सैक्स किया जाता है, तो कैसे? अन्यथा ना लें, केवल एक जिज्ञासा है - केवल सैक्स के विषय में ही नहीं। आपका जीवन कैसा है, आपको कब पता चला कि आप बाकी और लोगों से अलग हैं, मैं जानना चाहता हूं।
मेरा मोबाइल नंबर, सब-कुछ मेरे ब्लॉग पर आपको मिल जाएगा-
http://dard-a-dard.blogspot.com/
- संदीप शर्मा

संदीप जी सहानुभूति के दरकार तो अब हमें है ही नहीं कि यदि आप हमें सहानुभूति से देख लेंगे तो हमारी दुनिया बदल जाएगी। सत्यतः आपको किसी भूमिका के लेखन का भी कष्ट नहीं करना चाहिये था क्योंकि आपकी जिज्ञासा भी मात्र कमर के नीचे से ही ज्यादा संबद्ध है। अब मैं अपने भाई डा.रूपेश के संपर्क में आ जाने से मानसिक तौर पर इस तरह के सवालों के लिये मजबूती से तैयार हूं। दुःख है कि आपने अर्धसत्य की पुरानी पोस्ट्स को नहीं पढ़ा और वो भी उस पोस्ट को जो कि तमाम अन्य दिग्गज हिंदी ब्लागरों ने अर्धसत्य से लेकर अपने ब्लाग पर छापी थी। आपकी एक अत्यंत पुष्ट धारणा है कि सैक्स जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग है, कब इंकार है इस बात से लेकिन आपके जीवन का........। ईश्वर रचित हर ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रिय जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग हैं। आप अर्धसत्य की इस पोस्ट को पढ़ें और इसके आस पास की दो-चार अन्य पोस्ट भी.........
http://adhasach.blogspot.com/2008/04/blog-post_06.html
आशा ही नहीं बल्कि पूर्णरूपेण विश्वास है कि आप कि जन्मांधों के विषय में भी अप इतने ही गहरे जिज्ञासु होंगे। अनुराग बनाए रहिये इसी तरह से ताकि आपके सवालों के उत्तर सहजता से दे सकूं।

रविवार, 16 नवंबर 2008

राजनीति में षंढ,शिखंडी,नपुंसक,किन्नर,हिजड़े,छक्के और बृहन्नलाएं

एक बार फिर से शबनम(मौसी) के बाद मध्यप्रदेश की राजनीति में एक "किन्नर" ने शिवपुरी विधानसभा क्षेत्र से निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर पर्चा दाखिल करा है । लालीबाई पुकारे जाने वाले किन्नर के समर्थन में अनपढ़ और जाहिल बना कर रखे गये लैंगिक विकलांग बच्चों की एक बड़ी फौज खंडवा, भोपाल, ग्वालियर, कोलारस,सतनवाड़ा,जबलपुर,इंदौर,रीवा,सतना आदि स्थानों से एकत्र करके शिवपुरी पहुंचा दी गई है। बेचारे बच्चे अपना भला-बुरा तो समझते नहीं हैं इसलिये उन्हें उनके गुरू और नायक धर्म व परंपरा आदि के नाम पर जो समझा कर भेज देते हैं वो सब उसी को ब्रह्मवाक्य मान कर कभी बाहर निकलने की खुशी में तो कभी मजबूरी में करने लगते हैं। ये बच्चे लालीबाई को जिताने की कवायद में पैसा भी एकत्र करेंगे।
मेरी ओर से बस इतना कि शबनम(मौसी) ने चुनाव जीत कर लैंगिक विकलांगों के लिये क्या कर सकती थीं और क्या नहीं करा ये तो मैं आपको बताती चलूंगी लेकिन उस क्षेत्र के गुरूघंटालों के मुंह मेंराजनीति का खून लग गया है। जीतने के बाद जब उनसे पूछा जाता है कि आपने अपने समाज के उत्थान के लिये क्या करा तो उत्तर रटा हुआ है कि मैं हिजड़ों की नहीं "जनता" की नेता हूं इसलिये समाज या समुदाय विशेष की संकीर्ण बातें मुझसे मत करिये। राजनीति में हर तरह के लोग यानि षंढ, शिखंडी, नपुंसक,किन्नर, छक्के और बृहन्नलाएं आ जाएंगे पर लैंगिक विकलांगों को इस रेलम-पेल में हाशिये से भी अलग धकेला जा रहा है और कथित बुद्धिजीवी बस सहानुभूति के मालपुए छान कर मलाई चाटेंगे जिससे कि ’बिल गेट्स फाउंडेशन’ से सामाजिक मुद्दों पर शोध के लिये पैसा झटका जा सके। मैं इस बात की प्रबल संभावना जता रही हूं कि लालीबाई जीतेगी। आप क्या कहते हैं जरूर बताइये।

मंगलवार, 11 नवंबर 2008

भिन्न होना अपराध नहीं है!

लैंगिक विकलांग या हिजडे हर समाज में होते हैं. कम से कम 3 से 4 हजार पुराने एतिहासिक पुस्तकों में इनका वर्णन आता है, जिसमें सबसे महत्वपूर्ण है प्राचीन ईजिप्ट के पुस्तकों में.

मनुष्य समाज में हमेशा पुरुष एवं स्त्रियों की अधिकता रही है. शायद द्स लाख में एक होगा जो लैंगिक विकलांग पैदा होता है. लेकिन जिस तरह से कोई भी नवजात शिशु अपनी इच्छा से शारीरिक या मानसिक विकलांगता लेकर नहीं पैदा होता है उसी प्रकार कोई भी लैंगिक विकलांग अपनी मर्जी से यह विकलांगता लेकर नहीं पैदा होता है.

इस कारण हिजडों को असामान्य, अपराधी, या विचित्र समझने के बदले उनको भी मानव समझना जरूरी है. बाकी अगले पोस्ट में…

सोमवार, 10 नवंबर 2008

संवेदनशीलता या भय?

मनीषाबहन ने अपने आलेख मुखौटेधारी ब्लागरों को धिक्कार है,थू है उन पर.... में कुछ महत्वपूर्ण मुद्दे उठाये हैं. शास्त्री जी ने लैंगिक विकलांगों या हिजडों के बारे में अर्धसत्य की दुखद असलियत ! लिखा तो कई लोगों ने शास्त्री जी के चिट्ठे पर हमारे बारें में टिप्पणी की, लेकिन उन में से किसी ने भी अर्धसत्य पर एक टिप्पणी देने की हिम्मत नहीं की.

मुझे उम्मीद थी कि सारथी पर हमारे बारे में पढ कर कम से कम कुछ लोग अर्धसत्य को प्रोत्साहित करेंगे. मुझे अभी भी यह उम्मीद है कि समाज से डरने के बदले कम से कम कुछ मित्र हम लोगों के प्रति टिप्पणियों द्वारा संवेदनशीलता दिखायेंगे.

लैंगिक विकलांगों(हिजड़ॊं) से सीधे सवाल करिये




भूमिका ने मुखौटाधारी ब्लागरॊं की छ्द्म सहानुभूति पर जो अपने अंदाज में धिक्कारना शुरू ही करा था कि टिप्पणीकार ही अनाम, बेनाम और गुमनाम होने लगे। यदि आप इतना साहस जुटा पाएं कि हम लैंगिक विकलांगों के बारे में (जिन्हें आप शायद हिजड़ा कहना अधिक पसंद करते हैं) कुछ जानना है तो शालीन भाषा में मुझसे सवाल करें लेकिन पूरे परिचय के साथ जिसमें आपका नाम, फोन नम्बर, पता, ब्लाग का यू आर एल आदि बताएं जिससे कि पता चले कि आप वाकई गम्भीरता से कुछ ऐसा जानना चाहते हैं जो अब तक आपको पता नहीं है तो मैं आपके हर सवाल का इस चिट्ठे पर उत्तर दूंगी ये एक हिजड़े का वादा है आप मर्द और औरतों से। साथ ही एक छोटा सा विचार दे रही हूं कि जरा बिना लिंग या योनि की दुनिया में अपनी जगह की कल्पना करिये। यदि शरीर रचना संबंधी कोई सवाल होगा तो उसका उत्तर आपको हमारे मार्गदर्शक भाई डा.रूपेश श्रीवास्तव सहर्ष देंगे। आपके सवालों का मुझे इंतजार रहेगा, आप अपने सवाल मुझे मेरे ई-पते पर(manisha.hijda@gmail.com) पर भेज दीजिये।

शनिवार, 8 नवंबर 2008

मुखौटेधारी ब्लागरों को धिक्कार है,थू है उन पर....

पिछले कुछ दिनों से अर्धसत्य पर कुछ भी लिख पाना निजी कारणों से संभव नहीं हो पा रहा था। आज जब मामा जी डा.रूपेश श्रीवास्तव के घर गयी तो बच्चों के लिये काम करने वाली एक संस्था CRY के दो लोग बैठ कर उनसे पैसे जुगाड़ने के लिये तरह-तरह से समझा रहे थे और मामाजी हैं कि सुन रहे थे लेकिन जब मामा जी ने हमारे बारे में बात शुरू करी तो महानता का ताज सिर पर रख कर कट लिये। ब्लागिंग में भी ऐसे ही मुखौटेधारियों की कमी नहीं है जो बस एक दूसरे को महान-महान कह कह कर अंहकार की तुष्टि करते रह्ते हैं। जब शास्त्री जी ने सारथी पर हमारे बारे में लिखा तो टिप्पणियां करने लोग दौड़ पड़े कि हम भी उदार हैं, हम भी अर्धसत्य पढ़ते हैं, हम भी लैंगिक विकलांगो के प्रति सहानुभूति और प्रेम रखते हैं। उन मुखौटाधारियों को उस पेज पर धिक्कारने के बाद मैं आज उन लोगों के मुखौटे को अपने पन्ने पर भी धिक्कार रही हूं। हममें ऐसे किसी भी खोखली हड्डियों वाले मुखौटेधारी ब्लागर की सहानुभूति की जरूरत कहां है हम तो अपने मार्गदर्शक डा.रूपेश की दी हुई ताकत से ही नयी शुरूआत करने का साहस जुटा चुके हैं। ऐसे लोग अर्धसत्य न ही देखें तो बेहतर है क्योंकि हम तो शारीरिक लैंगिक विकलांग है,हिजड़े हैं लेकिन ऐसे लोग आत्मा के स्तर पर हिजड़े हैं, थू है थू है थू है ऐसे लोगों पर.........

अब तक की कहानी

 

© 2009 Fresh Template. Powered by भड़ास.

आयुषवेद by डॉ.रूपेश श्रीवास्तव