बुधवार, 30 अप्रैल 2008

कूवगम महोत्सव

कूवगम महोत्सव के बारे में आपको बताना चाहूंगा कि यह तमिळनाडु प्रदेश के विल्लूपुरम जिले के उल्लुन्दरपेट तालुका का एक गांव है। यहां की विल्लूपुरम से दूरी लगभग तीस किलोमीटर है जिसके लिये तमाम परिवहन साधन चलते हैं । यहां हर साल चैत्र माह में कूतण्डावर मंदिर में यह महोत्सव बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। तमिळनाडु सरकार भी इस महोत्सव पर खासी तवज्जो देती है क्योंकि वह पहला ऐसा प्रदेश बन गया है जहां की सरकार ने लैंगिक विकलांग लोगों को यानि कि TG के रूप में अधिकारिक तौर पर स्वीकारा है और अब उन्हें इस पहचान पर राशन कार्ड से लेकर ड्राइविंग लाइसेंस तक दिये जाएंगे। इस बार यह महोत्सव २१ अप्रैल से शुरू हुआ, इसकी अवधि पंद्रह दिनों की रहती है। इस उत्सव में वैसे तो हर प्रान्त से लैंगिक विकलांग जन आते हैं लेकिन भाषाई समस्या के चलते मात्र दक्षिण भारतीय ही रुकते हैं। हमारी मुंबई से इस महोत्सव में भाग लेने गयीं लैंगिक विकलांग बहन रम्भा अक्का के अनुसार इसमें अनेक समलैंगिक भी शामिल होते हैं लेकिन उन्हें इस महोत्सव से कोई लेना देना नहीं होता वे बस यहां आस्था में डूबे लैंगिक विकलांग लोगों से मुफ्त में सेक्स का आनंद लेने आते हैं क्योंकि इस दौरान यहां कुछ ऐसा ही माहौल रहता है। अजीब सा माहौल रहता है भक्ति और उत्सव के रंग में रंगे लैंगिक विकलांग अपनी आस्था में मग्न रहते हैं, एड्स अवेयरनेस वाले NGO के कार्यकर्ता अपने काम में यानि कंडोम वितरण में व्यस्त रहते हैं, विदेशी पत्रकार और फोटोग्राफर्स अपने धंधे में लगे रहते हैं। इस महोत्सव के दौरान सौंदर्य प्रतियोगिता से लेकर नाच-गाने तक की प्रतियोगिता होती है, जिसमें कि गुरुओं का निर्णायक मंडल होता है; अनेक राउंड से गुजर कर किसी एक लैंगिक विकलांग को मिस कूवगम चुना जाता है और ये मानदंड उसके अधिकतम स्त्रैण होने पर ही टिके रहते हैं। इस बार सलेम की मन्त्रा को यह खिताब दिया गया है। इस महोत्सव की शुरूआत के विषय में ये लोग महाभारत काल का संदर्भ देते हैं कि जब महाभारत का युद्ध प्रारंभ होने वाला था तो परंपरा के अनुसार विजय की कामनापूर्ति के लिये किसी मानव की बलि देना होता था किन्तु जब इस कार्य के लिये कोई भी आगे न आया तो पांडवों का ही एक राजकुमार जो को अर्जुन का पुत्र था स्वेच्छा से आगे आया जो कि नागराज कौरव्य की पुत्री इरा पैदा हुआ था जिसे कई जगहों पर इरावत भी लिखा गया है लेकिन यहां तमिळनाडु में इस पात्र को अरावान के नाम से जाना जाता है ठीक वैसे ही जैसे कि अलेक्जेन्डर को हम हिन्दुस्तानियों ने सिकंदर कहा हो सकता है कि खुद अलेक्जेन्डर को भी न पता हो कि उसे सिकंदर भी कहा जाता है इसलिये यह बहस का मुद्दा नहीं है कि यह उद्धरण किस ग्रन्थ में है। इस राजकुमार ने एक शर्त रखी कि वह बलि चढ़ने से पहले विवाह करना चाहता है लेकिन ऐसे आदमी से भला कौन विवाह करता जोकि अगले ही दिन बलिवेदी पर जा रहा हो तो ऐसे में हमेशा की तरह भगवान नटवर ही काम आए और मोहिनी नामक सुन्दर कन्या का वेश धर कर उसके साथ ब्याह कर बैठे और अगले ही दिन विधवा हो गये और उस लीला से मुक्त हो गये। इसी राजकुमार अरावान के नाम पर आज भी यहां तमिळ भाषा में इन्हें "हिजड़ा" न कह कर अरावानी कहा जाता है। इस महोत्सव में ये लोग विधिवत राजकुमार अरावान की मूर्ति से दुल्हन की तरह सज-संवर कर विवाह करते हैं,खूब गाना-बजाना होता है और अगले दिन ये लोग अपने मंगलसूत्र उतार कर,सफेद साड़ी पहन कर ,चूड़ियां तोड़ कर शोक करते हुए रोते हैं और इस रुदन को ओप्परी कहा जाता है जिसमें कि खास अंदाज में बातें बोलते हुए लयबद्ध तरीके से सामूहिक रुदन करा जाता है।
इस बार इस महोत्सव में अनुमानतः पांच हजार से अधिक लोग शामिल हुए थे। इस दौरान यहां के क्षेत्रीय लोग भी इस मेले से लाभान्वित होते हैं और बनाव-श्रंगार,खाने-पीने का सामान बेचते हैं, नाच-गाने के लिये वाद्ययंत्र बेचते हैं,सरकार इसे एक तीर्थ स्थल की तरह से महत्त्व देने लगी है। इस पूरे महोत्सव में एक विचित्र बात देखने में जो आती है वो ये कि इसमें सबसे कम लैंगिक विकलांग केरल से आते हैं और सर्वाधिक आन्ध्रप्रदेश से। पिछले दो सालों की तरह से इस बार भी कुछ पढ़े-लिखे लैंगिक विकलांग लोगों ने अपने संवैधानिक अधिकारों पर भाषण भी दिये और अपने आपको EUNUCH(बधिया करा हुआ पुरुष) न मान कर UNIQUE (अद्वितीय) बताया और कहा कि हम तो भगवान अर्धनारीश्वर के मानव रूप को साकार करते हैं यही है हमारी अद्वितीयता।
इन सारी जानकारियों का श्रेय जाता है हमारी रम्भा अक्का और मनीषा दीदी को जोकि पुरानी मान्यताओं को नये नजरिये से देखने का बूता रखती हैं, गुरूशक्तियां उन्हें और बल प्रदान करें कि वे आगे बढ़ कर हम सबके साथ सम्मान से खड़ी हो सकें और अपने लिये रोजी-रोटी का साधन जुटा सकें।

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