शनिवार, 1 मार्च 2008
क्योंकि मैं हिजड़ा हूं..........
ए अम्मा,ओ बापू,दीदी और भैया
आपका ही मुन्ना या बबली था
पशु नहीं जन्मा था परिवार में
आपके ही दिल का चुभता सा टुकड़ा हूं
क्योंकि मैं हिजड़ा हूं..........
कोख की धरती पर आपने ही रोपा था
शुक्र और रज से उपजे इस बिरवे को
नौ माह जीवन सत्व चूसा तुमसे माई
फलता भी पर कटी गर्भनाल,जड़ से उखड़ा हूं
क्योंकि मैं हिजड़ा हूं..........
लज्जा का विषय क्यों हूं अम्मा मेरी?
अंधा,बहरा या मनोरोगी तो नहीं था मैं
सारे स्वीकार हैं परिवार समाज में सहज
मैं ही बस ममतामय गोद से बिछुड़ा हूं
क्योंकि मैं हिजड़ा हूं..........
सबके लिए मानव अधिकार हैं दुनिया में
जाति,धर्म,भाषा,क्षेत्र के पंख लिए आप
उड़ते हैं सब कानून के आसमान पर
फिर मैं ही क्यों पंखहीन बेड़ी में जकड़ा हूं
क्योंकि मैं हिजड़ा हूं..........
प्यार है दुलार है सुखी सब संसार है
चाचा,मामा,मौसा जैसे ढेरों रिश्ते हैं
ममता,स्नेह,अनुराग और आसक्ति पर
मैं जैसे एक थोपा हुआ झगड़ा हूं
क्योंकि मैं हिजड़ा हूं..........
दूध से नहाए सब उजले चरित्रवान
साफ स्वच्छ ,निर्लिप्त हर कलंक से
हर सांस पाप कर कर भी सुधरे हैं
ठुकराया दुरदुराया बस मैं ही बिगड़ा हूं
क्योंकि मैं हिजड़ा हूं..........
स्टीफ़न हाकिंग पर गर्व है सबको
चल बोल नहीं सकता,साइंटिस्ट है और मैं?
सभ्य समाज के राजसी वस्त्रों पर
इन्साननुमा दिखने वाला एक चिथड़ा हूं
क्योंकि मैं हिजड़ा हूं..........
लोग मिले समाज बना पीढियां बढ़ चलीं
मैं घाट का पत्थर ठहरा प्रवाहहीन पददलित
बस्तियां बस गईं जनसंख्या विस्फोट हुआ
आप सब आबाद हैं बस मैं ही एक उजड़ा हूं
क्योंकि मैं हिजड़ा हूं..........
अर्धनारीश्वर भी भगवान का रूप मान्य है
हाथी बंदर बैल सब देवतुल्य पूज्य हैं
पेड़ पौधे पत्थर नदी नाले कीड़े तक भी ;
मैं तो मानव होकर भी सबसे पिछड़ा हूं
क्योंकि मैं हिजड़ा हूं..........
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4 टिप्पणियां:
बहुत ही मार्मिक कविता है और सत्य भी।
कविता सुंदर है और हिंजड़ा होने की मानसिक व्यथा को अच्छी तरह व्यक्त करती है.
लेकिन इन पंक्तियों को देख कर थोड़ा अजीब लगाः
"अंधा,बहरा या मनोरोगी तो नहीं था मैं"
अंधा हो या बहरा या मनोरोगी या कुष्ठरोगी या लैंगिक विकलाँग, सभी को समाज हाशिये से बाहर करता है, सभि का शोषण करता है, सभी के साथ अन्याय होता है. हमारे आसपास खड़ी यह दीवारें मिल कर ही टूट सकती हैं, अगर हम लोग आपस में ही एक दूसरे को नीचा ऊँचा देखेंगे तो बँटे रहेंगे, कमज़ोर रहेगें, और दीवारें न तोड़ पायेंगे.
सुनील
Dear Manisha,
aapne is mudde par sochne ko majbur kar diya.
sach me pata nahi kyon hum lengik viklang logon ki apne se dur karte aur sochte aayen hain, aapko padhne ke bad shayad aaj ke bad mai unse us tarah bachne ki koshish na karun jaise aaj tak karti aayi hun.
dravit ho gaya . aur sharm aati hai is mukhyadhara samaj ka ek hissa hone par.
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